क़ाफ़िये से रदीफ़ का सफ़र नहीं जानती
ये सच है दोस्तों कि मैं बहर नहीं जानती
मुझे तो सिर्फ़ इल्म है उल्फ़तो-मोहब्बत का
क़त्ल कर देती है जो, मैं वो नज़र नहीं जानती
बँटता है प्यार, दिल भर के, हर गली मोहल्ले में
तेरी बात और है, मैं ऐसा शहर नहीं जानती
रात कटी आँखों में, दिन ख़्वाब में गुज़र गया
नींद आई हो पास, मैं वो पहर नहीं जानती
अधूरी रही प्यास मेरी, समंदर पी गया मुझे
बुझाई जिसने तिश्नगी, मैं वो लहर नहीं जानती
- रचना १२ अगस्त २०१४
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