रात, समय की शाख से
एक लम्हा टूट कर गिरा कहीं..
मैं उस वक़्त जाग रही थी.
नींद जैसे मेरी...
मेरे दरवाज़े
तक आके लौट गई थी.
खामोशी, जो दूर तलक
बिखरी थी..
मैं उसकी
आवाज़ सुन पा रही थी.
रुखसत के वक़्त
तुम्हारी आँखों ने
बहुत कुछ कहा था...
मैं आज भी उन
शब्दों का अर्थ
ढूंढती हूँ शायद...!
© रचना कुलश्रेष्ठ
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