Tuesday, August 12, 2014

~~~ मौत का सामान ~~~

मुश्किल यूँ मेरी आसान हो गयी होती 
थोड़ी जो उनसे पहचान हो गयी होती 

बना लेती मैं भी ख्वाबों का एक महल
मोहब्बत जो परवान हो गयी होती 

खिलते गुंचे और कलियाँ चमन में 
कच्ची धूप जो मेहमान हो गयी होती 

यादें कुछ ज़िंदा है, उन बूढ़ी गलियों में 
वरना जाने कबकी वीरान हो गयी होती 

काँच थीं, चटक गयीं वो लाल चूड़ियाँ 
अबतक कलाइयों की शान हो गयी होती 

शुक्र है नज़्मों-रुबाइयों का साथ है मिला 
तन्हाई तो मौत का सामान हो गयी होती 

- रचना २० नवम्बर २०१३


~~ मुक़म्मल ~~

कहते हैं तक़मील-ए-क़िरदार
उम्र की मोहताज नहीं होती 
लेकिन होता है तजुर्बा और भी 
पुख्ता, जब उम्र दराज़ होती है

थामा बुज़ुर्ग हाथों ने, अना को मेरी 
जब नातमाम पाया खुद को मैंने 
कहा, टूटना-बिखरना खेल है 
जवाँ ख़ून की मासूमियत का 
क़ुदरत पे छोड़ दो, जो होगा 
अच्छा ही होगा...

दर्द कुछ कम हुआ मेरा, 
रूह को भी आराम आया... 
समेट के ख़ुद को, सरे-आइना किया 
अपने ही अक्स को अपने से 
मुख़ातिब पाया, कह रहा था 

'मैं मुक़म्मल हूँ अपने आप में 
मेरी तबस्सुम को अब
किसी के होने की दरकार नहीं'

- रचना २२ मार्च २०१४ 




~~~ मैं बहर नहीं जानती ~~~

क़ाफ़िये से रदीफ़ का सफ़र नहीं जानती
ये सच है दोस्तों कि मैं बहर नहीं जानती

मुझे तो सिर्फ़ इल्म है उल्फ़तो-मोहब्बत का
क़त्ल कर देती है जो, मैं वो नज़र नहीं जानती

बँटता है प्यार, दिल भर के, हर गली मोहल्ले में 
तेरी बात और है, मैं ऐसा शहर नहीं जानती

रात कटी आँखों में, दिन ख़्वाब में गुज़र गया
नींद आई हो पास, मैं वो पहर नहीं जानती

अधूरी रही प्यास मेरी, समंदर पी गया मुझे
बुझाई जिसने तिश्नगी, मैं वो लहर नहीं जानती

- रचना १२ अगस्त २०१४