Monday, July 23, 2012

~~~कुछ ख्वाब~~~


कुछ ख्वाब हमारी आँखों से ढलने लगे
कुछ अरमान हमारे दिल के पिघलने लगे
यूँ तो अब भी डर लगता है गिरने से हमें 
लेकिन अब हम गिर के संभलने लगे 

रचना कुलश्रेष्ठ 
११ जुलाई २०१२



~~~ पैरों के निशाँ~~~


देखो मेरी आँखों में ये ख्वाब किसके हैं
देखो मेरे सीने में ये तूफ़ान किसके हैं 
तुम कहते हो, मेरे दिल से होकर नहीं गुज़रे
तो फिर ये पैरों के निशाँ किसके हैं?

© रचना कुलश्रेष्ठ


~~~सवालिया निशाँ~~~


सांझ ढले, खिड़की के पीछे से झांकता
दूर आसमान को तकता हुआ 
एक भोला सा चाँद नज़र आया
निगाह क्षितिज पे थी और
मन भटक रहा था शायद 
किसी अपने की तलाश में
पलकों पे इंतज़ार की 
बूँदें छलक रहीं थीं ,
होठों के किसी कोने में
छिप के बैठा था अनकहा दर्द.
माथे पर झूलती लटों में 
मासूमियत उलझ गयी थी कहीं
आँखें अब पठार चलीं थीं उसकी 
टकटकी बंधी थी 
अब तलक क्षितिज पर ही 
वक़्त की लकीरों में 
जवाब खोजती हुई 
सीने में गुदा हुआ 
सवालिया निशाँ लिए. 

- रचना कुलश्रेष्ठ 
२० जुलाई २०१२ 


Monday, July 16, 2012

~~~ शब्द से छेड़ छाड़~~~

~~~ शब्द से छेड़ छाड़~~~

शब्द आया 
अर्थ ने हाथ मिलाया
दोनों मज़े से रहे साथ साथ
उन दिनों पति-पत्नी से अंतरंग थे 
शब्द और अर्थ
कभी शब्द विचलित होता 
या दुखी होता 
अर्थ संभाल लेता 
ढाढस बंधता, दिलासा देता 
उस समय शब्द को अर्थ पर 
उतना ही भरोसा था जितना 
दरख्तों को अपनी जड़ों पर होता है
एक दिन अचानक अर्थ, द्विअर्थी हो गया 
भाषा से मादकता झलकी 
शर्मिंदा हुआ शब्द 
लाख समझाया अर्थ को 
अर्थ नहीं माना, भटकता रहा घाट घाट 
ऐसे में हार कर शब्द भी ढोने लगा 
अर्थ का बोझ जबरन 
जैसे ढोती हैं शराबी पत्नियों को 
बेबस पत्नियां अक्सर 
समय की भाषाई दुर्घटना में
अर्थ ने की शब्द से छेड़ छाड़ 
शब्द आहत हुआ, निराश हुआ 
फिर खुद को संभाला 
उठ खड़ा हुआ 
और ओढ़ वाक्पटुता 
अपने घाव छिपाने को !