सांझ ढले, खिड़की के पीछे से झांकता
दूर आसमान को तकता हुआ
एक भोला सा चाँद नज़र आया
निगाह क्षितिज पे थी और
मन भटक रहा था शायद
किसी अपने की तलाश में
पलकों पे इंतज़ार की
बूँदें छलक रहीं थीं ,
होठों के किसी कोने में
छिप के बैठा था अनकहा दर्द.
माथे पर झूलती लटों में
मासूमियत उलझ गयी थी कहीं
आँखें अब पठार चलीं थीं उसकी
टकटकी बंधी थी
अब तलक क्षितिज पर ही
वक़्त की लकीरों में
जवाब खोजती हुई
सीने में गुदा हुआ
सवालिया निशाँ लिए.
- रचना कुलश्रेष्ठ
२० जुलाई २०१२
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