Tuesday, August 12, 2014

~~ मुक़म्मल ~~

कहते हैं तक़मील-ए-क़िरदार
उम्र की मोहताज नहीं होती 
लेकिन होता है तजुर्बा और भी 
पुख्ता, जब उम्र दराज़ होती है

थामा बुज़ुर्ग हाथों ने, अना को मेरी 
जब नातमाम पाया खुद को मैंने 
कहा, टूटना-बिखरना खेल है 
जवाँ ख़ून की मासूमियत का 
क़ुदरत पे छोड़ दो, जो होगा 
अच्छा ही होगा...

दर्द कुछ कम हुआ मेरा, 
रूह को भी आराम आया... 
समेट के ख़ुद को, सरे-आइना किया 
अपने ही अक्स को अपने से 
मुख़ातिब पाया, कह रहा था 

'मैं मुक़म्मल हूँ अपने आप में 
मेरी तबस्सुम को अब
किसी के होने की दरकार नहीं'

- रचना २२ मार्च २०१४ 




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