Saturday, August 4, 2012

~~~AKN Beckons~~~


कभी पंछी चहकते थे यहाँ 
कभी गागर छलकते थे यहाँ 
कभी तुम मेरी खामोशी सुन लेते थे
कभी कुछ ख्वाब भी हम बुन लेते थे
कभी यहाँ महफ़िलें जवाँ हुआ करती थीं 
शमा के साथ कुछ नज्में फना हुआ करती थीं
कभी मेरे दुःख में आँखें तुम्हारी भर आती थीं
कभी ख़ुशी तुम्हारी मेरे होठों पर इठलाती थी 
फिर आज क्यूँ इस कदर मसरूफ हुए हम  
ये किन उलझनों में आज हम यूँ हुए गुम
मुझे फिर से तुम्हारी नज्मों को अपनी पलकों से छूना है 
लौट आओ घर, कि ये आँगन तुम बिन सूना सूना है

© रचना कुलश्रेष्ठ 
२२ जून २०१२



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